*चींटी चावल ले चली, बीच में मिल गई दाल।*
*कहत कबीर दो ना मिले, इक ले दूजी डाल॥*
एक चींटी अपने मुंह में चावल लेकर जा रही थी । चलते चलते उसको रास्ते में दाल मिल गई । उसे भी लेने की उसकी इच्छा हुई। लेकिन चावल मुंह में रखने पर दाल कैसे मिलेगी ?,,, दाल लेने को जाती है तो चावल नहीं मिलता । ,,,चींटी का दोनों को लेने का प्रयत्न था । कबीर जी कहते हैं—- *दो ना मिले एक ले* चावल हो या दाल ।
कबीर दास जी के नाम से कहे जाने वाले इस दोहे का भाव यह है कि हमारी स्थिति में उसी चींटी जैसी है । हम भी संसार के विषय भोगों में फंसकर अतृप्त ही रहते हैं , एक चीज मिलती है तो चाहते हैं कि दूसरी भी मिल जाए , दूसरी मिलती है तो चाहते हैं कि तीसरी मिल जाए । यह परंपरा बंद नहीं होती और हमारे जाने का समय आ जाता है । यह हमारा मोह है, लोभ है । हमको लोहा मिलता है किंतु हम सोने के पीछे लगते हैं। पारस की खोज करते हैं ताकि लोहे को सोना बना सके काम क्रोध तथा लोभ यह तीन प्रकार के नर्क के द्वार हैं यह आत्मा का नाश करने वाले हैं अर्थात अधोगति में ले जाने वाले हैं इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए ।